बालासोर का अनुभव निराशाजनक रहा। जिस होटल में हमने रात गुजारी, वहाँ के कर्मचारियों का व्यवहार अनमना-सा था। कमरे की सफ़ाई और खाने की गुणवत्ता, दोनों ही संतोषजनक नहीं थे। सरकारी गेस्ट हाउस का हाल और भी बुरा था—दीवारों पर सीलन और फर्श पर जमी धूल उसकी दयनीयता की दास्तान चीख-चीखकर सुना रही थी। सरकारी संस्थाओं की दरिद्रता लोक और तंत्र दोनों की उपेक्षा का शिकार है।
समुद्र का हर तट लगभग एक जैसा ही होता है। दूर-दूर तक पसरा पानी, उसके आगे एक अनंत क्षितिज और पीछे कुछ घर-मकान। इस बीच में रेत और लहरों की अटखेलियों को निहारते लोग, जो ना जाने क्या तलाश रहे हैं? कोई सीप, तो कोई मोती, तो कोई मछली। सुबह-सुबह उठकर हम एक बार फिर चांदीपुर तट पर गए। वही दुर्गंध आज भी फैली मिली। चांदीपुर का यह तट अपने अनूठे “हाइ टाइड और लो टाइड” के कारण विशेष है, लेकिन प्रदूषण ने इसकी प्राकृतिक सुंदरता को धूमिल कर दिया है।
हमें यहाँ और रुकने की कोई संभावना नहीं दिखी। वैसे भी! जीवन भूत में नहीं, भविष्य के सपने लिए इस वर्तमान में ही संभव है। अगला पड़ाव निर्धारित करना आसान था। बालासोर से ढाई सौ किलोमीटर की दूरी पर कोणार्क है। कोणार्क ना सिर्फ़ सूर्य मंदिर के लिए प्रसिद्ध है, बल्कि वहाँ स्थित चंद्रभागा का तट भी मशहूर है।
चंद्रभागा तट भारत के उन पहले तटों में से एक था जिसे ब्लू फ्लैग प्रमाणन की सिफारिश मिली थी। यह मान्यता अंतर्राष्ट्रीय संस्था “फाउंडेशन फॉर एनवायरनमेंटल एजुकेशन” द्वारा दी जाती है, जो समुद्र तटों की स्वच्छता और पर्यावरणीय मानकों की पुष्टि करती है।
रास्ते में सुकांत ने अनिशा से पूछा — “सोचो, आज से 20 साल पहले क्या इतनी आसानी से सफर करना संभव था?” इस पर अनिशा ने तंज किया, “लेकिन यह सुविधा तो सिर्फ़ उन्हीं के लिए है, जिनके पास पैसे हैं, साथ ही जो इनका इस्तेमाल करना जानते हों। समाज का एक बड़ा तबका आज भी तंत्र की गलियों में अनपढ़ ही भटक रहा है। ना स्कूल का ठिकाना है, ना ही स्वास्थ्य की चिंता। ना रोजगार है, ना ही नौकरी बची है। ऊपर से ये अंग्रेजी ना जाने कितनों की जान की दुश्मन है। अंग्रेज चले गए, पीछे अंग्रेजी छोड़ गए।”
अनिशा की बातों ने सुकांत को उसकी माँ की याद दिला दी, जिन्होंने अपने बेटे को अंग्रेजी माध्यम में शिक्षित किया ताकि वह आधुनिक दुनिया से कदमताल कर सके। परंतु घर की चारदीवारी में हिंदी साहित्य का गहरा असर हमेशा रहा। सुकांत का मानना है कि शिक्षा की कमी ही हमारे समाज में भ्रष्टाचार और हिंसा का कारण है। उसका यह विचार उसकी रचनाओं में भी झलकता है।
बालासोर से कोणार्क के रास्ते ने हमें कई छोटे-छोटे पहाड़ों, नदियों और हरे-भरे खेतों से रूबरू करवाया। महानदी का चौड़ा पाट पार करते हुए हमें महसूस हुआ कि कैसे एक नदी अपने किनारों को जीवन देती है। इस यात्रा ने सुकांत को उसके जीवन के पुराने पन्ने पलटने पर मजबूर कर दिया।
सुकांत के पिताजी ने उसका परिचय साहित्य के विभिन्न पहलुओं से करवाया। हर महीने वे बाल पत्रिका से लेकर बाल उपन्यास उसे ला कर देते रहे। वैसे तो पढ़ाई में सुकांत औसत छात्र ही रहा, मगर पढ़ने-लिखने में उसे मजा ही आता है। उसने हिंदी और अंग्रेजी में कई साहित्य पढ़े। साथ ही इन दोनों भाषाओं में बनी हजारों-हज़ार चलचित्र उसने फुर्सत से बैठकर देखे हैं। कॉलेज से मिली नौकरी भी सिर्फ़ एक-डेढ़ साल में ही उसने त्याग दी। उसका त्यागपत्र भी साहित्यिक था। एक कविता, सॉफ्टवेयर इंजीनियर का इस्तीफा —
एक ऑफिस का फ्लोर,
फ्लोर पर कंप्यूटर,
कई लोग उसके सामने बैठे हैं,
कोशिश है चल जाए,
अपने-अपने गृहस्थी का कैलकुलेटर।
बैठे हैं सब काम कर रहे हैं,
बैठा हूं मैं भी,
देखता हूं मशीन,
और मशीनों के इशारे पर नाचता इंसान।
अरसे से सुबह की धूप नहीं देखी,
ओस से भींगे घास पर दौड़ा नहीं,
दिन गुजर गए जब रात साफ खामोश हो,
और खुले आसमान में चांद और बादल की शरारत नहीं देखी।
नेचर के नज़ारे अब वॉलपेपर बन गए हैं,
एक छोटे से डब्बे में दुनिया सिमट गई है,
दोस्ती और रिश्ते भी अब वर्चुअल बन गए हैं,
फेसबुक, ट्विटर, इंस्टा पर जवानी से बचपन फंस गया है।
लोग कहते हैं, गप मारना औरतों का काम है,
मशीनें आज ये काम भी उनसे बेहतर कर रही हैं,
कहते हैं उनके पेट में बातें नहीं पचती,
मशीनों का हाजमा भी कुछ बेहतर नहीं है।
इस मशीनी दुनिया को देख कर,
एक बार तो रोया होगा खुदा भी,
चिल्लाया होगा जी ले जो दो पल दिए हैं,
और जवाब आया होगा –
“इस रूट की सभी लाइनें व्यस्त हैं”।।
इस कविता को उसने अपने त्यागपत्र में लिख डाला। उसके सहकर्मियों ने बाद में बताया कि उसकी कविता कंपनी की वार्षिक पत्रिका का हिस्सा भी बनी। खैर, इन बातों को दर्जन भर साल गुजर चुके हैं। सुकांत अब इन बातों से आगे निकल चुका है। वह नए सवालों और चुनौतियों का सामना कर रहा है, जैसे — क्या पढ़ लिखकर हम लेखक, साहित्यकार, कलाकार या दार्शनिक नहीं बन सकते? या सिर्फ़ एक नौकरी की लालसा जगाना ही शिक्षा का उद्देश्य बचा है?
इधर कहानी दिखाने सुनाने वाले इतने हो गए हैं, कि आजकल कहानी पढ़ने लिखने वालों का अकाल पड़ गया है। बिना पढ़े कोई कैसे अच्छा लिख सकता है? नतीजन साहित्य की महिमा धुंधली पड़ती जा रही है। साहित्य के साथ साथ व्यक्ति और समाज भी खतरे में है। अर्थ का सृजन करने की बजाय मुद्रण बटोरने में लोक लगा पड़ा है, और तंत्र तमाशा बन चुका है। मुद्रण की कमी सुकांत को भी खलती है। परंतु, पैसा उसकी जिजीविषा का कें द्र कभी बन ही नहीं पाया।
उसे लिखने में आनंद मिलता है। इसलिए वह लिखता है। लिखता है क्यूंकि उसे ख़ुद को अभिव्यक्त करना है। अभिव्यक्ति ही तो अर्थ है। अब चाहे वह कला में हो, साहित्य में, या विज्ञान में। मुद्रण का बंदरबाँट तो हर कहीं संभव है, राजनीति भी अब कहाँ बची है?
सत्य के अर्थ को तलाशती यह यात्रा महज एक भौतिक सफर नहीं, बल्कि आत्ममंथन और नई दिशा की खोज भी है। चलते-चलते हम कोणार्क भी पहुँच गए। जिस मुकाम तक हमें जाना था, उससे पहले ही रहने लायक़ एक अच्छा ठिकाना मिल गया। शाम गहराने लगी थी। थकान भी चेतना को बोझिल बनाने को आतुर थी। हमने यह रात यहीं गुजारने का फैसला लिया, और नए सपने संजोने हम फिर सो गए।
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