डॉ योगेन्द्र
सूरज में गर्मी न के बराबर है। हल्के कुहरे और ठंड ने सूरज की ताप को हर लिया है। कभी-कभी बड़े-बड़े पहलवान भी हार जाते हैं। हाथी को चींटी भी परेशान कर देती है। सूरज भी आज परेशान था। आसपास के घरों पर फीकी धूप उतरी है। छतों और पेड़ों पर चिड़ियों की रुनझुन चल रही है। चिड़िया घोंसलों में अपने नन्हें-मुन्ने से कुछ कह रही होंगी। शायद हिदायत दे रही होंगी या अपने नन्हें-मुन्नों पर स्नेह बरसा रही होगी। पिछली बार भागलपुर आया था तो साथ में आर्ची थी। वह सोयी ही रहती कि मैं घूमने चला जाता। जब लौटता तो वह जग रही होती। उसकी दादी रोजमर्रे का कार्य संपादित करवाती और तब वह कहती- दादू, दूध लाने चलो। गली में ही किराने की दुकान है, जिसमें पैकेट वाला दूध मिलता है। मैं समझता था कि उसे दूध की कम चिप्स या चॉकलेट या इसी तरह के खाने की चीज़ों से ज़्यादा लगाव है। वह मेरी कमजोरी को समझती है कि अगर वह कुछ मांग ले तो मेरे पास नहीं कहने की ताक़त नहीं है। यों चिप्स और चॉकलेट दोनों बहुत अच्छी चीज़ें नहीं है। उसकी तबियत ख़राब रहती है या पेट में दर्द हो जाता है तो वह कहती है- दादू, अब चिप्स नहीं खाऊँगी। एक दो दिन नहीं भी खाती है, लेकिन फिर उसकी मन मचल जाता है। हर सुबह उसकी याद आती है। लगता है कि वह आयेगी और कहेगी- दादू, दुकान चलो। जब मेरे अंदर अपने बच्चों के लिए स्नेह बरसता है तो क्या चिड़िया अपने नन्हों पर प्यार नहीं बरसाती होगी।
आजकल मुझे दूसरे अनुभव भी हो रहे हैं। मेरे सिर पर बाल कम ही बचे हैं। काल ने उसे निगल लिया। जो भी शेष हैं, वे उजले हो गये हैं। मैं ठीक अपने पिता की तरह हो गया हूँ। पिता के बाल भी ऐसे ही ग़ायब हुए थे। फिर वे भी साँवले थे और मैं भी। क़द काठी भी वैसी ही है। एक अंतर है, वह यह कि शहर में रह कर मैं वैसा मज़बूत नही रहा, जैसा पिता थे। ख़ैर, वक़्त किसे माफ़ करता है! बाल की सफ़ेदी और उसकी उड़ान काफ़ी है जो आपको बाबा बनने के लिए विवश कर दे। आजकल ई रिक्शा वाला हो या सड़क पर चल रहे कोई नौजवान आपको हे बाबा और चला बना तो रे बाबा कहने के लिए तत्पर रहता है। एकाध बार तो बुरा लगा, लेकिन अब नहीं लगता। मैंने दादा को देखा नहीं। गाँव में दादा को बाबा कहते हैं। गाँव के बाबा आजकल कम परेशान नहीं हैं। जो खेत उपजाऊ नहीं है, उसे उपेक्षित करने की परंपरा है। ज़्यादातर बाबा अनुपजाऊ हो चुके हैं, इसलिए संसार में उनके टिके रहने का कोई मतलब नहीं है। शहर के ज़्यादातर बाबा भी घर से लगभग कट ही जाते हैं। ज़्यादा परेशान नौजवानों को बाबाओं से निजात मिल सके, इसके लिए वृद्धाश्रम बनाये गए हैं। जो बाबा से मुक्ति नहीं पा सके, वे घरों में ही झींकते रहते हैं। जो भी हो, मैंने सड़कों पर हे बाबा से रे बाबा की दूरी तय कर ली है। मेरा मन कबीर की तरह बेपरवाह हो चला है।
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(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है। इसके लिए Swaraj Khabar उत्तरदायी नहीं है।)