कुष्ठ रोग निवृत्ति के साधक बाबा आमटे

गांधीवाद के अनुयायी थे बाबा आमटे

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हेमेन्द्र क्षीरसागर
आनंदवन, चंद्रपुर, महाराष्ट्र में मुरलीधर देवीदास बाबा आमटे का जन्म एक संपन्न देशस्थ ब्राह्मण परिवार में 26 दिसंबर 1914 को हुआ था। महाराष्ट्र के हिंगणघाट शहर में उनके पिता देवीदास आमटे एक औपनिवेशिक सरकारी अधिकारी थे। मुरलीधर आमटे ने बचपन में ही बाबा उपनाम प्राप्त कर लिया था। बाबा आमटे आठ बच्चों में सबसे बड़े थे। एक धनी ज़मींदार के सबसे बड़े बेटे के रूप में उनका बचपन एक सुखद बचपन था। लेकिन वे हमेशा भारतीय समाज में व्याप्त वर्ग असमानता से अवगत थे।
बकायदा, कानून में प्रशिक्षित उन्होंने वर्धा में एक सफल कानूनी अभ्यास विकसित किया। वह जल्द ही भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल हो गए। 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन में शामिल होने के लिए औपनिवेशिक सरकार द्वारा कैद किए गए भारतीय नेताओं के लिए एक बचाव वकील के रूप में काम करना शुरू कर दिया। उन्होंने महात्मा गांधी द्वारा शुरू किए गए आश्रम सेवाग्राम में कुछ समय बिताया और गांधीवाद के अनुयायी बन गए। उन्होंने चरखा का उपयोग करके सूत काता। जब गांधी को पता चला कि डॉ. आमटे ने कुछ ब्रिटिश सैनिकों के भद्दे तानों से एक लड़की का बचाव किया था, तो गांधी ने उन्हें नाम दिया- अभय साधक सत्य का निडर खोजी।
एक दिन बाबा आमटे की मुलाकात एक जीवित लाश और कुष्ठ रोगी तुलसीराम से हुई। तुलसीराम की दुर्दशा देखकर डर से काँप उठे। बाबा आमटे एक सोच और समझ बनाना चाहते थे कि कुष्ठ रोगियों की सही मायने में मदद तभी की जा सकती है जब समाज “मानसिक कुष्ठ” से मुक्त हो। इस सोच को दूर करने के लिए उन्होंने एक बार खुद को एक मरीज के बेसिली का इंजेक्शन लगा लिया। ताकि यह साबित हो सके कि यह बीमारी अत्यधिक संक्रामक नहीं थी। उन दिनों, कुष्ठ रोग से पीड़ित लोगों को सामाजिक कलंक का सामना करना पड़ता था। यहां तक कि उन्होंने एक प्रयोग के तहत एक कोढ़ी के जीवाणुओं को अपने शरीर में इंजेक्ट होने दिया ताकि यह साबित किया जा सके कि कुष्ठ रोग अत्यधिक संक्रामक नहीं है। पुनर्वासित और ठीक हुए रोगियों के लिए उन्होंने व्यावसायिक प्रशिक्षण और हस्तशिल्प के विनिर्माण की व्यवस्था की।
स्तुत्य, बाबा आमटे ने संघर्ष किया और कुष्ठ रोग के उपचार को लेकर कलंक और अज्ञानता को दूर करने की कोशिश की। निवृत्ति के साधक, बाबा आमटे ने महाराष्ट्र में कुष्ठ रोगियों, विकलांगों और हाशिए पर रहने वाले लोगों के इलाज और पुनर्वास के लिए तीन आश्रमों की स्थापना की। उन्होंने ने एक पेड़ के नीचे आनंदवन में एक कुष्ठ रोग अस्पताल शुरू किया। वर्ष 1985 में उन्होंने शांति के लिए पहला निट इंडिया मिशन शुरू किया। 72 साल की उम्र में उन्होंने कन्याकुमारी से कश्मीर तक 3000 मील से अधिक की दूरी पैदल चलाई। उन्होंने वर्ष 1990 में नर्मदा बचाओ आंदोलन में भी भाग लिया। आनंदवन छोड़ दिया और सात साल तक नर्मदा के तट पर रहे।
वस्तुत: भारत सरकार ने 1971 में बाबा आमटे को पद्मश्री, डां अंबेडकर अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार, गांधी शांति पुरस्कार, रेमन मैग्सेसे पुरस्कार, टेम्पलटन पुरस्कार और जमनालाल बजाज पुरस्कार सहित कई पुरस्कार और सम्मान मिले हैं। भारत के आधुनिक गांधी बाबा आमटे का 9 फरवरी 2008 को महाराष्ट्र के आनंदवन में देवलोक गमन निधन हो गया।

 

 

Baba Amte was a seeker of curing leprosy
हेमेन्द्र क्षीरसागर, पत्रकार, लेखक व स्तंभकार, बालाघाट, मप्र
(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं
जवाबदेह है। इसके लिए Swaraj Khabar उत्तरदायी नहीं है।)
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