डॉ योगेन्द्र
सुबह से एक पंक्ति चेतना में चक्कर काट रही है- जो पेड़ छाया नहीं देता, उसे काट देना चाहिए। छाया नहीं देने वाले सभी वृक्ष क्या व्यर्थ होते हैं? क्या बूढ़े वृक्ष का कोई इतिहास नहीं होता? क्या बूढ़े वृक्ष जवान वृक्षों को कोई नसीहत नहीं दे सकते? जो पेड़ छाया नहीं देते, वे तो पत्रहीन होंगे ही। पत्र ही तो छाया के कारण हैं। बूढ़े वृक्ष और बूढ़े व्यक्ति के अनुभव ही उसके पत्र हैं। इससे वे समाज को समृद्ध कर सकते हैं। वे बता सकते हैं कि कैसे वृक्ष पलते फूलते हैं। उसे रोशनी कितनी चाहिए और कितना खाद? वृक्ष एक स्थल पर खड़ा है। उस स्थल पर आजादी चाहिए या नहीं? आजादी चाहिए तो कैसी आज़ादी चाहिए, अराजकता वाली या मनुष्यता के विकास वाली? आज ईरान की एक खबर है। ईरान में मॉरल पुलिस है। यानी वैसी पुलिस जो नैतिकता लागू करती है। ईरान की धर्म सत्ता और राज सत्ता के अपने नैतिक कानून है, जो इस दायरे में नहीं रहता है तो पुलिस उसे तंग करती है या गिरफ्तार कर लेती है। तेहरान इस्लामिक आजाद विश्वविद्यालय में एक छात्रा बिना हिजाब पहने विश्वविद्यालय परिसर आ गयी। मॉरल पुलिस ने उसे तंग किया और उसके कपड़े फाड़ दिए। यह खबर जान कर एक दूसरी छात्रा ने अपने सारे कपड़े उतार दिए। पुलिस ने उसे गिरफ्तार कर लिया और उसे मानसिक रूप से बीमार बता कर मेडिकल सेंटर भेज दिया गया।
इसके पूर्व 2022 में इसी मॉरल पुलिस ने हिजाब नहीं पहनने को लेकर 22 वर्षीया महिला को इतना पीटा कि वह मर गयी। इसके बाद ईरान में आंदोलन हुए और इसमें 551 प्रदर्शनकारियों की मौत हुई।
नरगिस सफी मोहम्मदी का नाम शायद आपने सुना हो। यह पढ़ी लिखी, तेजतर्रार महिला ईरान के जेलों में बंद हैं, क्योंकि इन्होंने मानवाधिकार के लिए सरकार से सवाल किया था और प्रताड़ित महिलाओं के पक्ष में खड़ी हुई थी। इसे शांति नोवेल पुरस्कार भी प्राप्त है। अगर कोई महिला हिजाब नहीं पहनना चाहती, तो उसे जबर्दस्ती हिजाब पहनाना गलत है। भारत, पाकिस्तान, बंगलादेश में भी बहुत सारी महिलाएं हिजाब नहीं पहनती। स्त्रियों की अपनी कोई इच्छा नहीं है? क्या वह जीवित प्राणी नहीं है? सारी बंदिशें स्त्रियों पर ही क्यों है?
यह एक राजनैतिक मुद्दा नहीं है, एक सामाजिक- सांस्कृतिक मुद्दा है। दरअसल यह स्त्रियों की आजादी का मुद्दा है। देश के संप्रभु हो जाने से देश के सभी नागरिक आजादी का उपयोग नहीं करते। करोड़ों लोग भारत में ऐसे हैं, जिन्हें आजादी हासिल नहीं है। आजादी का सुख क्या होता है, इसकी हल्की जानकारी नहीं है। छठ पर्व आने ही वाला है। मैं सड़क पर अचानक उगे दूकानों को देखता हूं, जहां सूपों की बिक्री हो रही है। बंसखोर जाति के लोग बहुत दिनों से बांस काट और छील कर सूप बना रहे थे। सड़क किनारे पालीथीन, फूस आदि से बना घर है। सड़क पर जब चलता हूं तो दस मिनट में मोबाइल स्क्रीन पर धूल की परतें जम जाती हैं और ये बंसखोर लगातार वहीं रहते हैं। उनके साथ भोजन तो क्या लोग बैठ भी नहीं सकते। उनके सूप सब घरों में जा रहे हैं, मगर उनसे अगर आजादी का मतलब पूछा जाए तो वे क्या बतायेंगे?
यह दुनिया विचित्रताओं से भरी है। हम सब अपने-अपने खोल में बंद होकर आजादी का जश्न मनाते हैं। जबकि असली आज़ादी तो खोलों से मुक्ति में है। इंसानी फितरत है कि हम सब एक इंसान के नजरिए से दुनिया को देखें। शेष तो हम लोगों ने ही बनाया है। चाहे वह धर्म हो या हो राष्ट्र।
(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है। इसके लिए Swaraj Khabar उत्तरदायी नहीं है।)