देश के अंदर उगता एक देश

कस्बों और गाँवों में एक और देश

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डॉ योगेन्द्र
रात को ही तय हुआ कि कल मधुपुर चलना है। कथाकार सुधाकर की तेरहवीं है। यह भी तय हुआ कि वहाँ रुकना नहीं है। सुबह चलना है और देर रात लौट आना है। कार से पाँच घंटे से कम नहीं लगेगा और फिर आने में पाँच घंटे। मधुपुर मेरी कमजोरी है। जब भी वहाँ जाने का अवसर मिलता है। मैं चूकता नहीं हूँ। यों मधुपुर के वे दिन नहीं रहे। हमलोग वीरपुर मेले में जमा होते थे। जंगल बचाने की एक लड़ाई चल रही थी। हमारे दोस्तों की एक संयुक्त संस्था थी जो बाद में दो हिस्सों में बँट गयी। तब भी मधुपुर के लिए ह्रदय के किसी कोने में जगह बनी हुई है। सुबह सात बजे हमलोग चल पड़े। ठंड सामान्य थी। यों अखबार ने कड़ाके की ठंड की चेतावनी दी थी। थोड़ी बहुत जो भी ठंड थी, उसे कार के अंदर मरना पड़ा, क्योंकि कार का हीटर चल रहा था। रांची शहर से बाहर आया तो कार की खिड़कियों से पहाड़, जंगल और पेड़-पौधे दिखने लगे। एक घाटी से गुजरा। घाटी में सड़क सर्पीली थी। खेतों से धान काट लिये गए थे। वे उजाड़- सा दिख रहे थे। आम, कटहल के पौधे थे ही, साथ में खजूर और ताड़। धरती बदलती, पौधे भी बदलते। सड़क किनारे के गाँवों और कस्बों में शहर की आदतें और वस्तुएँ घुलने लगी हैं। दसियों किस्म के चिप्स के पैकेट हर दूकान पर उपलब्ध है। जगह-जगह रेस्टोरेंट, होटल और स्कूल। एक होटल में कॉफी के लिए गया। साथ में पकौड़े मँगाये गये। 130 रुपये में पकौड़े और 75 रुपये कॉफी।
मुझे लगा कि यह तो बहुत महंगा है। टेबुल के चारों ओर लगी कुर्सियों पर हम सब बैठे थे। इस बीच महंगे सामान की चर्चा हुई तो एक साथी ने याद दिलाई कि तीन साथियों ने यहाँ के टॉयलेट का इस्तेमाल किया है। मैं सोचने लगा कि महंगे सामान और टॉयलेट में क्या संबंध है? आगे उन्होंने राज खोला। उन्होंने कहा कि एक बार वे स्विट्जरलैंड गए थे। वहाँ उन्हें और उनके दोस्त को टॉयलेट की तलब हुई। दोनों टॉयलेट के पास गए। टॉयलेट का दरवाजा बंद था। वह तभी खुलता है, जब आप एक यूरो डालते हैं। उन्होंने एक यूरो डाला और दोनों टॉयलेट में घुस गए। घुसते ही दरवाज़ बंद हो गए। दोनों निवृत हुए और दरवाज़े खोलने लगे। दरवाजे खुलबे न करे। दोनों परेशान। आखिरकार उसमें एक यूरो और डाला गया, तब दरवाजे खुले। तथाकथित भद्र होटल में महंगे सामान में टॉयलेट के पैसे जुड़े रहते हैं। भारत प्रगति पर है। संसद के मकर गेट पर जो धक्कम धुक्की हो रही है। उससे देश की गति बाधित नहीं होगी। दरअसल उनके हाथ में बहुत कुछ नहीं है। वे खुद किधोर पानी में ऊभ-चूभ कर रहे हैं। उनकी आँखें निस्तेज हो चुकी हैं। देश के कस्बों और गाँवों में एक और देश उग रहा है। हम इसे पहचानते रहें, क्योंकि देश के अंदर दो देशों के बीच संघर्ष हो रहा है। यह कौन सा स्वरूप लेगा। अभी कहना मुश्किल है। जरूरत यह है कि हम इस सच्चाई का विश्लेषण करें और समझें कि हमारा देश किधर जा रहा है?

 

Another country in towns and villages
डॉ योगेन्द्र
(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं
जवाबदेह है। इसके लिए Swaraj Khabar उत्तरदायी नहीं है।)
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