इस अंधेरी रात की सुबह

कुम्भ में भीड़ को सम्हालने में प्रशासन बेबस

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Administration helpless in handling the crowd in Kumbh
बाबा विजयेन्द्र (स्वराज खबर, समूह सम्पादक)

मुझे आज मौन ही रहना चाहिए था। मौनी अमावस्या पर भी मुखर होना किसी की भी दृष्टि में अधार्मिकता हो सकती है, पर पत्रकारिता धर्म का पालन करना भी तो एक धर्म है। मौनी अमावस्या पर स्नान से सुख-समृद्धि आने की बात हो रही है। किधर देखूँ? सुख और समृद्धि को समझने का प्रयास कर रहा हूँ। एक सौ पचासी लाख करोड़ का विदेशी कर्ज हमारे माथे पर कांग्रेस के वक्त पचपन लाख करोड़ का विदेशी कर्ज था। उसी वक्त देश के सामने आर्थिक गुलामी का खतरा आ गया था। पर अब? यह कर्ज तो तीन गुणा बढ़ चुका है। इस अर्थ दंड से मुक्ति, क्या धर्मदंड से संभव है? देश को उत्सव में झोंकना समस्या से मूँह चुराना तो नहीं है? लगे रहो मुल्क के लोगों …
मुझे भारत और भारतवासियों का भविष्य नजर आ रहा है। भारत एक संज्ञा था। भारत स्वयं एक समाज था। पर आज भीड़ और भगदड़ से भारत भयाक्रांत है। मोक्ष की चाहत में हिन्दू कुम्भ की तरफ दौड़ पड़े हैं। कुम्भ में अप्रत्याशित जमावड़ा है। भीड़ और भी बढ़ने की आशंका है। प्रशासन बेबस है भीड़ को सम्हालने के लिए। कुम्भ की महिमा का ऐसा गायन हुआ है कि लोग यहां आने से चुकना नहीं चाहते हैं। पर जिस बात का डर था वही बात हो गयी। भगदड़ ऐसी मची कि लोगों को बेवक्त की ही मुक्ति मिल गयी। घटना पर व्यवस्था मौन है। अमावस्या है।
कुचले जाने की खबर मिलने के बावजूद भी लोग रुक नहीं पा रहे हैं। स्वर्ग का हिस्सा लूटने में कहीं देर न हो जाए। इस डिजिटल कुम्भ की कथित दीनता और दिव्यता पर बाद में चर्चा होगी। यह भी बाद में ही देख लेंगे कि हिंदुओं का कितना पाप धुला? पापियों का पाप धोते-धोते गंगा किस हाल में है? संगम से आगे गंगा किस अवस्था में बढ़ेगी, यह भी कौतुहल का विषय है। कुछ दिन अयोध्या में, कुछ दिन काशी में, कुछ दिन प्रयाग में? संभव है कि सिलेबस में आगे मथुरा भी शामिल हो? इस राष्ट्र की यही नियति अब शेष है।
फरवरी में कुम्भ खत्म हो जाएगा, तब क्या होगा? देश में निर्मलता की कैसी स्थिति होगी? अगर निर्मलता और धार्मिकता नजर नहीं आयी तो इस भीड़ के क्या मायने? कोई बीमार अस्पताल से भी मृत्यु ही लेकर वापस आये तो अस्पताल का क्या अर्थ? महिमा अगर है तो असर भी तो दिखना चाहिए न। प्रवचन उद्योग में वृद्धि के बावजूद भक्त पर कोई असर नहीं दिख रहा है तो चिंता वाजिब है। आधार्मिकता और बढ़ ही गयी है। क्या प्रवाचकों के सामने यह सवाल नहीं है? मेरे कहने से क्या फर्क पड़ता है। धर्म की सत्ता अपने वजूद के साथ कुम्भ में खड़ी है। हजारों वर्षों की अवैज्ञानिक चेतना भारत के साथ-साथ चल रही है।
यमुना दिल्ली से बहुत कुछ लेकर आगे संगम तक पहुँचती है। यहां भी चुनावी कुम्भ है। भगदड़ मचा हुआ है। दो तीन दिन प्रचार के बचे हैं फिर भी नेताओं का इस दल से उस दल में आना जाना बना है। इस सियासी आवागमन से नेताओं को मुक्ति नहीं मिलने वाली है। इधर उधर भागना जारी ही रहेगा। यहां भी सुर असुर का संघर्ष चल रहा है। आप’दा प्रबंधन जोरों पर है। भाजपा कुम्भ पर कब्ज़ा को लेकर बेक़रार है।
दिल्ली किसकी होगी और देश किसका होगा? शोर बहुत है। शांति की तलाश में राजघाट आ गया हूँ। यहां भी सन्नाटा ही है। पर इस अँधेरे रात की निश्चित ही सुबह होगी, भरोसा रखिये।

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