सरकार का इरादा तो बड़ा नेक है मगर…
बिहार के स्कूलों में ऐक्टिंग का कोर्स शुरू होने वाला है
ब्रह्मानंद ठाकुर
खबर है कि अब बिहार के सरकारी स्कूलों में बहुत जल्द ही ऐक्टिंग का कोर्स शुरू होने वाला है। ऐसे कोर्स करने वाले छात्र भविष्य में फिल्मों, टीवी और नाटक के क्षेत्र में अपना भविष्य बना सकेंगे। इसके लिए, सूबे के सरकारी स्कूलों में टीवी, फिल्म, स्टेज कलाकार बनने के लिए प्राइमरी स्तर पर ट्रेनिंग दी जाएगी। यह काम कला, संस्कृति एवं युवा विभाग और शिक्षा विभाग संयुक्त रूप से करेंगे। स्कूल स्तर पर यदि छात्र ड्रामा, आर्ट्स में बेहतर प्रदर्शन करते हैं, तो सरकार की तरफ से उनको प्रशिक्षित भी किया जाएगा। अगर ऐसा हुआ तो बच्चों के अंदर छिपी प्रतिभा को निखारने का अवसर मिल सकता है। वैसे हर बच्चे में कुछ जन्मजात प्रवृति होती है और कुछ वह अपने परिवेश से सीखता है। बच्चों के अंदर छिपी प्रतिभा को उसके अभिभावक और शिक्षकों द्वारा सही से पहचान कर उसे प्रोत्साहित किया जाए तो वह बच्चा बड़ा होकर निस्संदेह अपने क्षेत्र में परचम लहरा सकता है। मगर, अमूमन ऐसा होता नहीं है। माता- पिता अपने बच्चों को अपनी रुचि के अनुसार ढालना चाहते हैं। सारी समस्याएं यहीं से शुरू होती है। अभिभावकों के साथ-साथ शिक्षकों की भी यह जिम्मेवारी होनी चाहिए कि वे बच्चों की अभिरुचि को पहचानें। उसे परिष्कृत, परिवर्धित करें। दुर्भाग्य से हमारी वर्तमान शिक्षा व्यवस्था में ऐसा कुछ नहीं हो रहा है। विद्यालयों में पठन-पाठन के आलावे अन्य शिक्षणेत्तर गतिविधियां लगभग ठप है। विद्यालयों में भाषण, वाद-विवाद, पेंटिंग, नृत्य, एवं सामूहिक सांस्कृतिक कार्यक्रम जैसे आयोजन अब नहीं होते। महापुरुषों और साहित्यकारों की जयंतियां नहीं मनाई जाती। शिक्षकों में ऐसे आयोजनों के प्रति कोई रुचि अब नहीं रह गई है। हमारी नई पीढी अपनी जड़ों से कटती जा रही है। आधी सदी पहले ऐसा नहीं था। मुझे अपना छात्र जीवन याद है। गांव के बेसिक स्कूल में हर शनिवार को सामूहिक सांस्कृतिक कार्यक्रम होता था। हम बच्चे बड़े उत्साह से उसमें भाग लेते थे। तब सीनियर कक्षा के एक छात्र ने एक दिन जब सरयू सिंह सुंदर का लिखा एक गीत, अंधेरी निशा में नदी के किनारे धधक कर किसी की चिता जल रही है/ धरा रो रही है, बिलखती दिशाएं / असह वेदना ले गगन रो रहा है/ किसी की अधूरी कहानी सिसकती/ कि उजड़ा किसी का चमन रो रहा है। सुनाया तो मेरी आंखों से आंसू निकल पड़े थे। आज भी जब किसी की जलती चिता देखता हूं तो मुझे वह गीत याद आ जाता है। हाईस्कूल में चार साल तक पढ़ा। वहां हर साल सरस्वती पूजा के दूसरे दिन नाटक होता था। पहली बार मुझे जयशंकर प्रसाद के चंद्रगुप्त नाटक में सेल्युकश की भूमिका मिली थी। नाटक की पूरी तैयारी हमारे शिक्षक कराते थे। उस दौर में प्रायः सभी हाईस्कूलों में नाटकों का मंचन होता था। आज शिक्षण संस्थानों में इस मामले में शून्यता की स्थिति है। सवाल नीति का नहीं, नीयत का है।
(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है। इसके लिए Swaraj Khabar उत्तरदायी नहीं है।)