डॉ योगेन्द्र
कल जब नई दिल्ली स्टेशन पर उतरा था तो झमाझम बारिश हो रही थी। दिल्ली आये कम से कम दस वर्ष हो गये होंगे। सब कुछ अनजाना- सा लग रहा था। नई दिल्ली स्टेशन से जंतर मंतर पर स्थित वाईसीएमए में जाना था। मित्र ने कहा था कि ऑटो वाला पचास रुपये लेगा। अजमेरी गेट की ओर से जब ऑटो के पास आया तो पहले वाले ने तीन सौ और थोड़ी दूर आगे खड़े ऑटो वाले से दरयाफ्त किया तो उसने दो सौ कहा। सिर पर बारिश की बूँदें पड़ रही थीं। ठंडक थी ही। मुझे लगा कि पैसे का चक्कर छोड़ कर ऑटो करना ही ठीक रहेगा। मैं और अलका ऑटो पर बैठ गए। सड़क पर कारों का रेला था। चौड़ी सड़कों के बावजूद ट्रेफिक आसान नहीं थी। बारिश की वजह से सड़क से नजर दूर नहीं जा रही थी। दिल्ली के दोस्तों ने बताया कि बारिश की यहाँ जरूरत थी। हवा में इससे प्रदूषण के तत्व घटेंगे। खैर। हम लोग दोस्तों के सहारे वाईएमसीए के कमरे में पहुँच चुके थे। अच्छा खासा रूम, चौड़ा, झक सफेद चादर, गद्देदार बिस्तर और कंबल। सफेद दीवारें और हर जरूरत की चीजों से सजे बाथरूम।
यों खाने का समय हो चुका था, लेकिन पहले कॉफी मँगाई गई। चर्चा पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से शुरू हुई। 1991 का समय था। उदारीकरण की हवा धनपशु देशों के द्वारा बहा दी गई थी। उरुग्वे दौर के बाद जो कुछ विश्व में हो रहा था, हम सब अच्छा नहीं मानते थे। हम लोगों को लगता था कि बहुत मुश्किल से औपनिवेशिक शासन से मुल्क उबरा था और उसे उदारीकरण के माध्यम से फिर से गुलाम बनाने की कोशिशें हो रही हैं। धड़ल्ले से बहुराष्ट्रीय कंपनियों को न्यौता जा रहा है। एक ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने तीन सौ वर्षों तक राज किया और अब तो अनेक कंपनियाँ देश में आ रही है। हम लोग कहीं आजादी बचाओ आंदोलन के माध्यम से तो कहीं गुलामी विरोधी मोर्चा के माध्यम से धरना-प्रदर्शन कर रहे थे। आज भी यह बात लगती है कि जो भी सत्ता में आए, उनके पास देश के आर्थिक विकास का कोई मुकम्मल सपना नहीं था। आज भी नहीं है। कर्ज पर कर्ज लिये जा रहे हैं और देश में जहाँ तहाँ ऐय्याशी के टापू उगा रहे हैं। स्वावलंबन इसकी बुनियाद नहीं होकर परावलंबन इसकी बुनियाद में है। बाहर से आयी पूंजी देश का विकास करेगी, ऐसा सत्ता ने मान लिया है। जब पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु ने महात्मा गांधी के रास्ते को त्याग कर परावलंबी रास्ता अपनाया, तब से देश ने नया रास्ता खोजना बंद कर दिया। सबके लिए संसाधन जुटाने के बजाय वोट और नोट के लिए कुछ लोगों के जिम्मे देश का संसाधन सौंपने लगे। आज भी मुझे लगता है कि देश की जनता को भरोसे में लेकर अर्थव्यवस्था के लिए नया रास्ता ढूँढना चाहिए। लोकतंत्र संसाधनों और विचारों को विकेंद्रित करने से मजबूत होगा। वरना आत्महत्या के आँकड़े बढ़ते ही जायेंगे। यह लिखते हुए कार की खिड़कियों से पनियाये आकाश, धुंध और भीगी धरती को देखता हूँ। दिल्ली से राजस्थान में प्रवेश कर चुका हूँ, लेकिन शहर का सिलसिला रूका नहीं है। उदारीकरण या समाजवादी चिंतक किशन पटनायक के अनुसार ग्लोबीकरण की विजय की इबारत सब जगह लिखी है।
(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है। इसके लिए Swaraj Khabar उत्तरदायी नहीं है।)