धार्मिक कर्मकांड जब आडम्बर बन जाए!

ईश्वर सम्बंधी अवधारणा मानव निर्मित

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ब्रह्मानंद ठाकुर
हमारे इलाके में एक पीपल का बड़ा पेड़ है। वहां एक चबुतरा बना हुआ है। पेड़ की डालियों से लाल रंग के कपड़े के कुछ टुकड़े लटक रहे हैं। एक दिन उधर से गुजर रहा था। चबुतरे पर कुछ मिट्टी का ढेला पड़ा हुआ देखा। पूछने पर पता चला कि यह ढेलफोड़बा गोसाईं हैं। गांव के आस्थावान लोग यहां मिट्टी का ढेला चढ़ाते हैं। आपको जगह- जगह वट और पीपल के पेड़ से ऐसे ही लाल कपड़े के टुकड़े लटकते देखने को मिल जाएंगे। कहीं- कहीं इसके तने से लाल-पीले धागे भी लपेटे हुए रहते हैं। ऐसे वृक्ष किसी न किसी देवी- देवताओं के प्रतीक माने जाते हैं। मेरा खुद का मानना है कि चलिए, कम से कम इस बहाने भी उन पेड़ों की रक्षा तो हो जाती है। वट, पीपल के पेड़ बड़ी मात्रा में प्राण वायु आक्सीजन उत्सर्जित करते हैं। इस लिहाज से इन पेड़ों की पूजा मुझे उचित लगती है। कम से कम इसी बहाने लोग इसे काटते तो नहीं! देवताओं का निवास मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा और गिरजाघर भी है। इनमें अधिकांश गला काट व्यापार और भ्रष्टाचार के अड्डे बन चुके हैं। कुछ अपवाद भी जरूर होंगे। कथा, प्रवचन अकूत कमाई का जरिया बन गया है। कथा वाचकों की कथा कहने की फीस लाखों में होती है। देवालयों की संख्या जितनी तेजी से बढ़ रही है, देवत्व का उतनी तेजी से लोप हो रहा है। आज से लगभग सवा छह: सौ साल पहले कबीर पैदा हुए थे। उन्होंने—‘ पाहन पूजै हरि मिलै तो मैं पूजू पहाड़ / ता ते ये चक्की भली, पीस खाए संसार और कांकड़-पाथर जोरि के मस्जिद लियो बनाय/ ता चढ़ि मुल्ला बांग दे, क्या बहरो भयो खुदाय’ कहकर जन- जन को जागृति का संदेश दिया था। धार्मिक आडंबरों का विरोध किया था। वे तन की शुद्धता के बजाय मन की शुद्धता पर जोड देते थे। अपने इसी संदेश के कारण कबीर आज भी प्रासंगिक हैं। आज देखता हूं, तन तो चकाचक है, लेकिन मन कलुषित है। जरूरत मन के इसी मैल को मिटाने की है। यह कलुष पवित्र नदियों में स्नान करने से नहीं मिटता। इसके लिए युगानुरूप सत्कर्म करना होता है। यह प्रकृति किसी की देन नहीं। यह स्व उद्भूत है। यह वस्तु जगत, क्षिति, जल, पावक, गगन और समीर भी स्व उद्भूत है। सर्वशक्तिमान ईश्वर सम्बंधी अवधारणा भी वस्तुजगत के आधार पर मानव निर्मित है। मनुष्य द्वारा जब प्रकृति प्रदत्त विभिन्न साधनों को निजी सम्पत्ति बनाया गया तो उसने कालांतर में भगवान सहित अनेक देवी- देवताओं की कल्पना कर उनकी मूर्तियां बनाकर मंदिरों में स्थापित किया। उनकी पूजा- अर्चना शुरू की गई। यह पूजा भी निष्काम भावना से नहीं, भौतिक और आधिभौतिक सुखों की प्राप्ति के लिए की जाती थी। आज भी की जा रही है। ऐसी पूजा से कितने को भौतिक अथवा आधिभौतिक सुख मिला, यह शोध का विषय हो सकता है। हां, इतना जरूर हुआ कि धर्म को व्यापार बना देने वाले ठेकेदारों को तमाम तरह के भौतिक सुखों की प्राप्ति होने लगी। सही वैज्ञानिक चेतना और सामाजिक जीवन को बेहतर विकल्प के अभाव में शोषित- वंचित वर्ग के लोगों में भी उन्हीं की देखा-देखी मंदिरों और देवी- देवताओं को निजी सम्पत्ति बनाने की होड़ लग गई है। सत्ताधारी वर्ग भी इन्हीं चीजों को अपना हथियार बनाकर अपना चुनावी स्वार्थ साधने लगा है। धर्म का मूल तत्व- सहिष्णुता, सद्भाव और आपसी भाईचारा गौन हो चुका है। स्थिति वाकई चिंताजनक है।

 

ब्रह्मानंद ठाकुर
ब्रह्मानंद ठाकुर

 

(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं
जवाबदेह है। इसके लिए Swaraj Khabar उत्तरदायी नहीं है।)
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